Author: बबलू कुमार
DOI Link: https://doi.org/10.70798/Bijmrd/02110022
सारांश: हमारे विदेशी व्यापार के प्रमाण हमारे देश के प्राचीन साहित्य विशेषकर हमारे संगम साहित्य में मिलते हैं। समुद्र के पार पूर्व में सुदूर जावा और सुमात्रा द्वीपों और पश्चिम में अरब प्रायद्वीप तक एक नियमित ष्व्यापार मार्गष् था। लेकिन इस तरह के व्यापार की मात्रा नगण्य थी और मध्य युग और भारत में ब्रिटिश शासन के आगमन तक इतनी तंग बनी रही। (भगवती जेएन, और अन्य, 1975) आंतरिक व्यापार या घरेलू व्यापार एक ही देश की राजनीतिक सीमाओं के भीतर खरीदारों और विक्रेताओं के बीच वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान को संदर्भित करता है। इसे या तो थोक व्यापार या खुदरा व्यापार के रूप में चलाया जा सकता है। दूसरी ओर बाह्य व्यापार या विदेशी व्यापार, विभिन्न देशों के बीच का व्यापार है अर्थात यह इसमें लगे देशों की राजनीतिक सीमाओं से परे तक फैला हुआ है। दूसरे शब्दों में, दो देशों के बीच के व्यापार को विदेश व्यापार के रूप में जाना जाता है। किसी भी देश के आर्थिक विकास में विदेश व्यापार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। बढ़ती विशेषज्ञता और श्रम के क्षेत्रीय विभाजन और इसके परिणामस्वरूप अर्थशास्त्र की अन्योन्याश्रितता के कारण आधुनिक दिनों में इसका अत्यधिक महत्व और महत्व हो गया है। कृषि स्तर से एक भारत जैसे देश को कारक बंदोबस्ती और न्यूनतम लागत के साथ बड़े पैमाने पर उत्पादन करके निर्यात अधिशेष बनाना है। निर्यात व्यापार घरेलू संसाधनों को पूंजी और मशीनरी के अधिक उत्पादक रूपों में परिवर्तित करने में एक गतिशील भूमिका निभाता है और इस तरह पूंजी निर्माण में तेजी से मदद करता है। पूंजी निर्माण की प्रक्रिया प्रत्यक्ष और तत्काल होगी यदि आयात बिलों का भुगतान वर्तमान निर्यात आय से किया जाता है।
मुख्यशब्द: व्यापार के उदारीकरण,व्यापार नीति,विदेशी व्यापार,ब्रिटिश शासन,थोक व्यापार,आर्थिक विकास
Page No: 189-198